अध्यात्म  (Spirituality)

दु निया में अध्यात्म या धर्म की कहीं कमी नहीं दिखाई देती है। पूरे जगत में धर्म-साहित्य, धर्म-चर्चाओं, धर्म-स्थलों, धर्म-अनुष्ठानों की भरमार है। जनसंख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा धर्म के विस्तार में लगा है। हर किसी की धर्म में बड़ी आस्था है। सबके जीवन में इसका बड़ा महत्व है। यह सब देखकर लगता है कि दुनिया में धार्मिकता ही धार्मिकता होनी चाहिए, पर ऐसा कहीं नज़र नहीं आता। चारों तरफ़ अधार्मिकता का प्रभाव दिखाई देता है, यानी प्रयास बहुत है, पर परिणाम शून्य है| यदि क्रियाओं को ही धार्मिकता माना जाए, तो धार्मिकता बहुत है, लेकिन जीवन में पवित्रता, शक्ति, शान्ति, आनन्द, निडरता, सहिष्णुता, समभाव आदि गुणों को धार्मिकता माना जाए, तो धार्मिकता का नितान्त अभाव है। इसका मतलब यह है कि कुछ कुछ ग़लत हो रहा है। इतने प्रयास व्यर्थ क्यों जा रहे हैंसबसे बड़ी भ्रान्ति है धर्म को कर्म से अलग समझना। यह भ्रान्ति ज़बरदस्त रूप से व्याप्त है। इसे निकालना बहुत आवश्यक है, अन्यथा धर्म कभी पनप ही नहीं पाएगा। यदि कोई कर्म को श्रेष्ठ तरीके से करता है, कर्म को करते हुए सद्भावना है, विचार शुद्ध है, पारदर्शिता हैं, सात्विक उद्देश्य है, तो इससे बढ़कर कोई धर्म नहीं है और किसी धर्म की आवश्यकता नहीं है। जो भी धर्म के नाम पर गतिविधियाँ की जाती हैं, उनका उद्देश्य मात्र कर्मों में और विचारों में पवित्रता लाना होता है। उनका अपने आपमें अलग कोई उद्देश्य नहीं है, उनकी और कोई मंज़िल नहीं हैलेकिन हम हैं कि धर्म की मंज़िल ढूँढ रहे हैं, समझ रहे हैं कि ये पूजा-पाठ, ये कर्म-काण्ड, ये दान-पुण्य, ये ध्यान-साधना किसी मंज़िल पर पहुँचा देंगे। इनका असली मक़सद नहीं समझेंगे, तब तक हम व्यर्थ का श्रम कर रहे हैं। हमारे जीवन में मुख्य ये नहीं हैं। हमारे जीवन में मुख्य हमारे कर्मों, विचारों प्रवृत्तियों की पवित्रता है और ये ठीक हैं, तो सब कुछ ठीक है, फिर और कोई कमी नहीं है और आप पूरे धार्मिक हैं। ...लेकिन हम अपने कर्मों को पाप समझते हैं और उन पापों को कम करने के लिए कुछ अलग तथाकथित धार्मिक गतिविधियाँ करते हैं। इस तरह से अपने पाप-पुण्य के खाते को बराबर करना चाहते हैं। यह हिसाब-किताब तुम्हारी दुनिया में चलता होगा। परमात्मा के यहाँ इस तरह का हिसाब-किताब नहीं चलता। यदि आपके कर्मों में पाप है, तो कोई गतिविधि उस घाटे को पूरा नहीं कर सकती। उसको पूरा करना है, तो कर्मों में से पाप को निकालना होगा। हम अपने कर्मों को पाप इसलिए समझते हैं, क्योंकि हमें उनकी पवित्रता पर विश्वास नहीं है, यदि विश्वास है, तो फिर किसी की बात पर ध्यान मत दीजिए। आप धार्मिक हैं। आप अलग से कितना काम करते हैं, उससे कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता है, बल्कि इन्सान यदि अलग गतिविधियों में समय ख़र्च करने की बजाय अपने कर्मों विचारों को पवित्र बनाने में पूरा ध्यान दे, तो वह ज़्यादा धार्मिक बन पाएगा। सबसे ज़्यादा गुमराह करते हैं वे लोग, जो वास्तविक जीवन का सामना ठीक से नहीं कर सकते हैं। वे बोलते हैं- गृहस्थ जीवन नर्क का द्वार है। वे अपने आपको उससे अलग कर लेते हैं, अपने आपको गुरु का दर्जा दे देते हैं और फिर सारी दुनिया को गुमराह करते फिरते हैं। वे हमारे वास्तविक जीवन को महत्वहीन बनाने में और तथाकथित धार्मिक गतिविधियों को महत्वपूर्ण बनाने में सारा जीवन लगा देते हैं, क्योंकि उनके पास और तो कोई काम होता नहीं है। जीवन के संघर्ष से तो वे भाग ही चुके होते हैं। जो खुद जीवन के संघर्ष से अलग हो चुका है, वह हमें जीवन जीना क्या सिखाएगा ? लेकिन हम हैं कि बस उन्हीं की सुनते हैं और वे हमें डराने में बड़े माहिर होते हैं। ऐसी-ऐसी कहानियाँ बनाकर हमारे दिमाग़ पर हावी कर देते हैं कि हम अपने आपको हमेशा पापी समझते हैं। हम हमेशा यही समझते रहते हैं कि हम तो जीवन में ग़लत ही ग़लत करते रहते हैं, बस ये लोग ही जीवन को सही तरीके से जी रहे हैं। वे हम से हमेशा यह कहते रहते हैं कि क्या दिन-रात कर्म ही करता रहता है, थोड़ा समय धर्म के लिए भी तो निकालो। सब कुछ यहीं रह जाएगा। सिर्फ़ धर्म ही साथ जाने वाला है। वे कर्म नहीं कर सकते, तो अपनी सत्ता को बचाने के लिए वे इन्सान के कर्म को महत्वहीन करते रहते हैं या उसे पाप का दर्जा देते रहते हैं। इससे क्या होता है कि इन्सान के कर्म में से धर्म बाहर निकल जाता है। इसलिए दुनिया में इतनी अधार्मिकता पनपती जा रही है। यदि कर्म को ही धर्म समझ लिया जाए, तो यह दुनिया धार्मिक हो सकती है और आगे भी सब कुछ ठीक हो सकता है। यदि कोई व्यक्ति नौकरी करता है और वह अपना कार्य पूरी ईमानदारी से करता है। अपने साथियों से अच्छा व्यवहार रखता है। समय का पालन करता है। जहाँ काम करता है उस संस्था की उन्नति में अपना पूरा योगदान देता है और साथ में स्वयं के घर-परिवार की खुशियों का भी पूरा ध्यान रखता है, यदि वह व्यक्ति अलग से और कोई धार्मिक गतिविधि नहीं करता है, तो वह धार्मिक है या नहीं ? आप खुद समझ सकते हैं। इसी प्रकार कोई व्यवसायी अपना कारोबार पूरी ईमानदारी से - करता है। अपने ग्राहकों से बहुत ही अच्छा व्यवहार करता है। उनके लाभ की सोचता है। अपने कारोबारी सहयोगियों के साथ सही नीति से कार्य करता है। अपने कर्मचारियों के प्रति सद्भावना रखता है। इसी तरह एक डॉक्टर सेवा-भावना से कार्य करता है। मरीज़ों को दवा के साथ अपना प्यार भी देता है। उनको वस्तु समझकर इन्सान समझता है। उनकी तक़लीफ़ दूर करने में पूरी रुचि रखता है। यदि व्यक्ति अपने जीवन की हर गतिविधि ईमानदारी से करे अलग से कोई धार्मिक गतिविधि नहीं भी करे, तो वह धार्मिक क्यों नहीं है ? निश्चित रूप से वह धार्मिक है और वह अपने कार्य में दूसरों के मुक़ाबले सफल भी अधिक होगा। सुख और आनन्द भी उसके जीवन में ज़्यादा होगा, लेकिन वास्तविकता में इस तरह के लोग देखने में कम मिलते हैं। हर किसी में कुछ गलत प्रवृत्तियाँ घर कर लेती हैं। हर कोई अहंकार, क्रोध, लालच, ईर्ष्या आदि के वशीभूत हो जाता है। किसी में विकार ज़्यादा भी हो सकते हैं। किसी में कम भी हो सकते हैं, पर इन विकारों को दूर करने के लिए हम ऐसे स्थान निर्मित करते हैं, ऐसे कुछ उपाय करते हैं, जिन्हें हम धार्मिक या आध्यात्मिक कहते हैं। इनका उद्देश्य यही होता है इन्सान यहाँ अलग से बैठकर या कोई अन्य गतिविधि करके अपने जीवन के असली स्वभाव का स्मरण कर सके, अपनी आत्मा के अध्याय को पढ़ सके। यहाँ से पनपे सद्विचार उसके जीवन की दैनिक गतिविधियों में शामिल हो सकें। यहाँ से विकसित दिव्य आभा उसके जीवन में प्रकाश भर सके। ऐसा कुछ हो रहा हो, तो बहुत ठीक है, पर ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं देता है। आदमी ने इन दोनों गतिविधियों को अलग-अलग कर दिया है। धर्म को लोगों ने अपना धन्धा बना लिया है। सब अपनी-अपनी धर्म की दुकानें बड़ी करने में लगे हुए हैं। धर्म का जो लाभ मिलना चाहिए, वह मिल ही नहीं रहा है, बल्कि इससे और नुक़सान होता जा रहा है। किसी कार्य का उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो, तो उसकी दिशा पूरी ग़लत हो जाती है। आदमी तो यह समझ रहा है कि मैं पूजा-पाठ, कर्म-काण्ड, दान-पुण्य, ध्यान-साधना जितना ज़्यादा करूँगा, उतना ही धर्म लाभ ज़्यादा होगा, उतना ही मेरा पुण्य का खाता ज़्यादा जमा होगा। इसलिए वह मात्रा पर ज़्यादा केन्द्रित है। उसको यह पता ही नहीं है कि यह भीतर की यात्रा है। यह प्रवृत्तियों से विकारों को दूर कर सही इन्सानियत का विकास करने की यात्रा है। वह भीतर तक पहुँच ही नहीं पाता। वह क्रियाओं में ही उलझ कर रह जाता है।यह बात तो ख़ूब फैल गई कि धर्म करना चाहिए। जिनका जीवन, जिनकी रोज़ी-रोटी इसी पर चलती है, उन्होंने इस बात का प्रचार-प्रसार करने में कोई कसर नहीं रखी कि जितना धर्म करोगे, उतना ही पुण्य होगा। कर्म-काण्ड के इतने तरीके बना दिए कि जिनका कोई अन्त ही नहीं है। धर्म के इतने स्थान बना दिए हैंजिनको कोई गिन ही नहीं सकता। यहाँ तक कि हर आदमी अपने घर पर भी एक मन्दिर बनाने लग गया है। इस दुनिया में एक बहुत बड़ा प्रतिशत ऐसा है, जो इन धार्मिक गतिविधियों से अपना पेट भर रहा है। धर्म का ऐसा प्रचार किया गया है और ऐसा भारी ताला आदमी के दिमाग पर जड़ा है कि यह शब्द आते ही, उससे कुछ भी करवाया जा सकता है यह ताला इतना संगीन है कि छोटे से छोटे और बड़े से बड़े लोगों का विवेक पूरी तरह उसमें कैद हो चुका है। धर्म के मूल उद्देश्य से पूरी तरह आदमी भटक चुका है इसलिए जीवन में नारकीयता बढ़ती जा रही है। आदमी से आदमी का रिश्ता टूटता जा रहा है भीतर से प्रेम रस पूरा खाली हो चुका है। आत्मबल नष्ट हो चुका है। साहस की कमी गई है। खुद की सत्ता पर विश्वास नहीं है। बड़ा आश्चर्य होता है जब इन्सान को देखते हैं कि वह अहंकार और क्रोध से जैसे ज्वालामुखी की तरह भरा हुआ, नफ़रतों का समन्दर भीतर समेटे हुए, अपने आपसे डरा हुआ, किसी एक के साथ भी ठीक से रिश्ता नहीं बना पाता। प्रेम का तो जैसे जीवन में कहीं स्थान ही नहीं कई लोग बोलते हैं, में बहुत आध्यात्मिक प्रवृत्ति का इन्सान हूँ, पर उनकी वाणी में वह मिठास नज़र नहीं आती, उनके भावों में प्रेम कहीं नज़र नहीं आता, वे मानसिक रूप से बड़े विचलित से नज़र आते हैं, वे व्यावहारिक जीवन में असफल हो चुके होते हैं, तब बात समझ में नहीं आती कि उन्होंने कौन-से अध्यात्म को पकड़ा है? यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि अध्यात्म का मतलब हम गलत समझ रहे हैं। अध्यात्म इन्सान को कमज़ोर नहीं बनाता, बल्कि शक्तिशाली बनाता है। वह इन्सान को प्रेममयी बना देता है। वह उसके जीवन को सच्चे आनन्द से भर देता है। आध्यात्मिक इन्सान कभी किसी से कुछ माँगता नहीं है, वह तो हमेशा दूसरों के हित की बात ही सोचता रहता है। उसके मन में कभी नकारात्मकता और निराशा के भाव नहीं होते। प्रकृति में होने वाली हर घटना के प्रति उसका समभाव रहता है। वह जीवन में घटित होने वाली हर प्रकार की गतिविधियों को सच्चे तरीके से जीता है। वह जीवन से भागता नहीं, बल्कि उसको सार्थक बनात है। वह जागरूक होकर प्रतिपल अपने जीवन से विकारों को निकालता रहता है। सही धर्म तब होगा, जब धर्म के लिए अलग से कुछ करने की आवश्यकता ख़त्म हो जाएगी। धर्म का प्रभाव जीवन पर इतना हो जाए कि हर पल इन्सान धार्मिक रहे। हर पल उसे अपनी पवित्रता का एहसास हो। हर कर्म में, हर विचार में, हर आचरण में धर्म घुल जाए। ऐसा नहीं होता है, तो अलग से धर्म करने की आवश्यकता होती है और उस अलग से धर्म करने का अभिप्राय मात्र इतना है कि उस समय ऐसा अभ्यास करो कि वह आपके जीवन में निरन्तर छा जाए। उस समय अपने विचारों में इतनी पवित्रता लाओ कि वही हर पल आपके भीतर बस जाए, हर कार्य में उसका प्रकाश फैला रहे अपनी आत्मा की शक्ति पर ध्यान 1 करो, उसके मूल स्वभाव को पहचानो, ताकि वह हमेशा अपनी स्मृति में बना रहे पूर्ण जागरूकता लाने के उद्देश्य से ही धर्म की आवश्यकता हो और अभी यह आवश्यकता बहुत ज़्यादा है, इसलिए हर कोई धर्म की बात करता है। धर्म करते समय इस बात को, इस उद्देश्य को ज़रूर ध्यान में रखना, नहीं तो धर्म कभी हो ही नहीं पाएगा। जो अलग से करते हो, उसका और कोई अभिप्राय नहीं है, वह अपने आपमें पूर्ण नहीं है, वह ऊर्जा का अन्त नहीं है, वह तो एक छोटी-सी शुरूआत है, उसका प्रभाव जीवन में लाना मुख्य कार्य है और इतना लाना है कि हर दिन हर पल ही ऐसा हो जाए कि जैसा अलग से धार्मिक गतिविधि करने पर होता है। जागो! मिथ्या धर्म से बचो! जीवन में सर्वश्रेष्ठ समझी जाने वाली बात को ही गलत तरीके से करेंगे, तो दुर्गति निश्चित है। दूसरों की ओर मत देखो, यह साहस तो स्वयं ही करना है। अपनी आत्मा की आवाज़ को सुनो। यदि सच्चा धर्म करना है, तो कहीं भी बैठ जाओ। स्थान समय का चुनाव ऐसा करना है, जब कुछ पल आप भीतर की यात्रा में जा सको। दो पल अपनी आत्म-शक्ति पर नज़र करो। उसमें बसी पवित्रता, आनन्द, सहिष्णुता, शान्ति, प्रेम, साहस पर ध्यान करो। उन्हें महसूस करो। उस बोध से भर जाओ और उस बोध को जीवन के हर पल में लाने का प्रयास करो जीवन में हमेशा श्रेष्ठ का चुनाव करो हर बुराई से बचो अपनी आत्म-शक्ति द्वारा स्वयं का इस जगत का कल्याण करने में जाओ बस यही आत्मा का अध्याय है। यही सच्चा धर्म है। जुट जीवन दर्शन पर जितनी चर्चा करो, उतनी कम है, पर उसकी परिणति शुभ नहीं हो, तो वह व्यर्थ है। जब तक इन्सान स्वयं की भूमिका अदा नहीं करेगा, तब तक सब चर्चा, ज्ञान व्यर्थ है और स्वयं की भूमिका को ठीक से समझ ले, तो एक इशारा काफ़ी है। किसी मत से सहमत हो जाने, किसी के प्रति समर्पित हो जाने या किसी मार्ग को अपनाने मात्र से कोई यह समझ ले कि मैं अब सत्य मार्ग पर चल रहा हूँ, यह भ्रम भी हो सकता है। आपको परिणामों को जाँच लेना चाहिए। यदि उस मार्ग पर चलने से आपमें प्रेम-भाव बढ़ रहा है, आनन्द बढ़ रहा है, निर्भयता बढ़ रही है, विकार दूर हो रहे हैं, आत्म-विश्वास बढ़ रहा है, आपकी शक्ति बढ़ रही है, आप हर स्थिति में स्थिर चित्त रहने में सक्षम होते जा रहे हो, तो समझ लो आप सही मार्ग पर चल रहे हो। यदि आपमें इसके विपरीत विकास हो रहे हैं या असन्तुलित विकास हो रहा है, अच्छाई के साथ कुछ बुराइयाँ भी पनपती जा रही हैं, विकारों पर काबू नहीं हो पा रहा है, जीवन में आनन्द की अनुभूति नहीं हो पा रही है, तो समझ लो आप कहीं कहीं कोई गलती कर रहे हैं, और आपको कुछ बदलाव लाने की ज़रूरत है। भीड़ को मत देखो! भीड़ कर रही है वह ठीक है, इस सोच से मुक्त होइए। अपना परीक्षण स्वयं कीजिए और अपने भीतर एक निर्णय क्षमता विकसित कीजिए जीवन-पथ कठिन नहीं है, जीवन-पथ जटिल भी नहीं है। कुछ जटिलताओं को जीवन से बाहर निकलना है बस! जीवन और आनन्द के बीच के अन्तर को हटाना है और आनन्द को जीवन का पर्यायवाची बनाना है।

  

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